स्वाधीनता के बाद पहली बार 423 ग्रामों के 2500 ग्राम ऋषियों ने ग्राम विकास पर किया सामूहिक चिंतन
भोपाल। साक्षरता, समरसता, स्वदेशी, संस्कृति, संस्कार, स्वावलंबन, सुरक्षा एवं पर्यावरण आदि ग्राम विकास के 9 आयामों पर विभिन्न सत्रों में चले विमर्श के बाद लेखक ने उन्हें टटोलने की कोशिश की तो सभी ने खुलकर विचार रखे। अधिकांश सहभागी बंधुओं ने बताया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में संयोजक मंडल की भूमिका को सम्मेलन में बहुत स्पष्टता के साथ समझाया गया। आदर्श हिन्दू परिवार विषय पर चर्चा सत्र बहुत उपयोगी रहा।
स्वाधीनता के बाद पहली बार अब ग्राम विकास के विषय पर 423 ग्रामों के 2500 ग्राम ऋषियों ने बैठकर सामूहिक चिंतन किया। सम्मेलन में शामिल ये लोग बड़े एकेडमिशियन थे, ऐसा नहीं था, लेकिन दुनियां कैसे स्वस्थ, सुखी रह सकती है ये मंत्र जो उन्हें परम्परा से मिले थे और ग्रंथों को पढ़कर खोजे थे, बस उन्हें बांटने आये थे। इस विमर्श में सभी की कुछ साझा चिंतायें भी थीं। कई लोगों ने बताया कि पहले कभी चौपाल के अलाव के पास बैठकर लोग गांव की बेहतरी के लिये सोचते थे, घर की मुंडेरों पर गौरैया चहकती थीं, पोखर को तैरकर पार करने की होड़ लगती थी। अखाड़े के उस्ताद गांव में ही जोर कराते थे। गुरुकुल केवल विद्याध्ययन के केन्द्र नहीं थे बल्कि सामुदायिक सहकारी जीवन निर्माण की पाठशालायें थी। हर घर में गाय की पूजा होती थी। साझे परिवार थे और एक कमाने वाला सबको खिलाता था। टेसू के बिखरे फूलों से ऐसा लगता था जैसे धरती ने पीताम्बरी ओढ़ ली हो। गांव की बेटी के ब्याह में पूरा गांव पैर पखारता था और तन-मन-धन से सहयोग करता था। गांव में सभी तीज-त्यौहार मिलकर मनाये जाते थे, होली के फाग में पूरा गांव मस्ती में झूम उठता था। सामाजिक समरसता का ऐसा अनूठा उदाहरण कही दिखाई नहीं देता है। पंचायतें बैठती थीं और बड़े-बड़े निर्णय पंच परमेश्वर करते थे। ऐसे ही आदर्श गांवों का वर्णन अपने शास्त्रों में मिलता है –
ग्रामे-ग्रामे सभा कार्या, ग्रामे-ग्रामे कथा शुभा।
पाठशाला मल्लशाला, प्रतिपर्व महोत्सवः ।।
तब केवल अयोध्या में ही नहीं बल्कि पूरे देश में रामराज्य था। घर के कपाट कभी बंद नही होते थे। प्रत्येक स्त्री मां, बहन, बेटी का स्वरूप होती थी। पराये धन को हाथ लगाना पाप माना जाता था। चींटी को दाना मिलता था और हाथी को मनभर मिलता था –
चीटी को चुनभर देते हैं, हाथी को मन भर देते हैं।
ऐसे दीनानाथ दयालु, सबका मन हर लेते हैं।।
गांव में कोई लाचार-बीमार नही था। सच्चे अर्थो में ग्राम स्वराज्य कैसा होता है, इसकी जीती जागती मिशाल थे हमारे गांव। लगभग एक हजार वर्षों की पराधीनता के कालखण्ड में भी गमई जवानों के ईमान को कोई खरीद नहीं सका। जब बड़े
-बड़े बुर्ज वाले नवाब और बड़े-बड़े रसूखदार अंग्रेजों की विरूदाबलियां गाते नहीं थकते थे तब भी इन्ही गवरूओं ने अपने धर्म, संस्कृति के लिए देश की इंच-इंच भूमि बचाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी लेकिन आज ग्राम्य जीवन का ऐसा स्वरूप दिखाई नहीं देता।
गांधीजी हमेशा कहा करते थे कि भारत ग्रामों में बसता है। गांधी जी जिस हिंद स्वराज्य की बात करते थे वह वास्तव में ग्रामराज ही था। आज होटलिंग, बॉटलिंग शगल बनता जा रहा है। आचरणभ्रष्ट, पथभ्रष्ट बेइमानों की बुलंदियों के आगे सज्जन शक्तियां असहाय सी लगती हैं, लेकिन अभी भी समाधान बाकी है। राष्ट्र के परम वैभव का सपना साकार हो सके, इसके लिए हमें ग्रामों की ओर लौटना होगा। सीमेंट, कंक्रीट के ये सघन शहर आबादी का ज्यादा दबाव सहन करने की स्थिति में नहीं हैं। ग्रामों को उद्यमिता, समरसता, स्वावलंबन के मॉडल के रूप में खड़ा करना होगा। स्वदेशी का भाव जगाकर ’सबके साथ सबका साथ’ यह मंत्र लेकर आगे बढ़ेंगे तो जल्दी ही भारत को सोने की चिड़िया बनने से कोई नहीं रोक सकता। आज हमारे सामने श्वांसों का संकट गहराता जा रहा है। अपने आस-पास 50 मीटर के पर्यावरण को शुद्ध, सुरक्षित रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। पानी की बूंद-बूंद को सहेजने, बचाने के उपाय करने होंगे। छोटे-बड़े, अगड़े-पिछड़े, ऊंच-नीच की मजबूत दीवारों को ढहाये बिना सामाजिक समरसता केवल वादों-दावों का विषय बनकर रह जायेगी। जड़ी-बूटियों को सहेज कर उनका उपयोग सुनिश्चित करने से स्वस्थ भारत जन्म लेगा।
गांवों को समर्थ, स्वावलंबी बनाना होगा
शिवपुरी मंथन के बाद एक चर्चा सर्वत्र चल पड़ी है कि ’जग सिरमौर बनायें भारत’ का रास्ता गांव की पगडंडियों से निकलेगा। गांवों को समर्थ, स्वावलंबी बनाकर ही स्वाभिमानी राष्ट्र खड़ा हो सकेगा और यह पश्चिम की नकल से नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा और अधुनातन के मेल से होगा। यह कार्य किसी एक व्यक्ति के भरासे पूर्ण होने वाला नही है बल्कि इस राष्ट्रीय अनुष्ठान के उद्यापन के लिए लाखों लोगों को आगे आना होगा।
अहं से बाहर आकर हम सबको वयं और विराट होना होगा। इस अमृतकाल में शिवपुरी जैसे अनेक चिंतन शिविर आयोजित करने पड़ेंगे।
इस चिंतन-मंथन से निकलने वाले हलाहल को हलक में पचा जाने वाले शंकर कितने हैं, उतने प्रमाण में सुखी, समृद्ध विश्व और वैभव सम्पन्न भारत आकार ले सकेगा। भारत का विजयी होना उसकी नियति है, बस गोवर्धन पर्वत को एक अदद कृष्ण की तलाश है-
कोई चलता पदचिन्हों पर, कोई पदचिन्ह बनाता है।
है वही सूरमा वीर पुरूष धरती पर पूजा जाता है।।
इस सम्मलेन में मा. डॉ मनमोहन वैद्य सह सरकार्यवाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, मा. श्रीराम आरावकर अखिल भारतीय सह संगठन मंत्री, डॉ रवींद्र कान्हेरे अखिल भारतीय उपाध्यक्ष एवं श्री भालचंद्र रावले क्षेत्र संगठन मंत्री का मार्गदर्शन व विशेष सान्निध्य प्राप्त हुआ।